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फीफा कप को किसने जोड़ा मजहब से

आर.के. सिन्हा कतर में चल रहे फीफा विश्व कप में लगातार उलटफेर हो रहे हैं। यह ही एक ऐसा खेल है जिसमें अच्छी क्वालिटी के खेलों का रोमांच बढ़ता है जब नतीजे अप्रत्याशित आते हैं। कमजोर समझी जाने वाली टीमें भी बड़ी शक्तिशाली टीमों को परास्त कर देती हैं। इस बार के फीफा कप को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि लगातार इसके इस्लामीकरण करने की कोशिश ही होती रही। यह जब आरंभ हुआ तो इस बात को जरूरत से ज्यादा महिमामंडित किया गया कि इसका आयोजन एक इस्लामिक देश कर रहा है। फिर नॉकआउट राउंड में स्पेन को हराने के बाद पहली बार क्वॉर्टर फाइनल में पहुंची मोरक्को टीम के खिलाड़ियों ने फिलिस्तीनी झंडे के साथ जीत का जश्न मनाया। मैच में मोरक्को ने स्पेन को पेनल्टी शूटआउट में 3-0 से हराया था। मोरोक्को की स्पेन पर जीत से हमारे यहां भी बहुत से लोग इस तरह से खुश हो रहे थे मानो कि उनका मुल्क मोरोक्को ही हो, पर यहां फिलिस्तीनी या पाकिस्तानी झंडे के साथ जश्न नहीं मनाया जा रहा था । देखिए, खेल और खिलाड़ी देश की सीमाओं से परे हैं। मोहम्मद अली, दादा ध्यानचंद, सचिन तेंदुलकर या रोज फेडरर को किसी देश की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता। ये सही मायने में विश्व नागरिक हैं। पर किसी खिलाड़ी या टीम को उसके मजहब के कारण पसंद करना या उसे चीयर करना समझ से परे है। इस बार यह बार-बार हुआ। सारी दुनिया ने इस बार फीफा कप के इस्लामीकरण करने की कोशिशों को तब भी देखा था जब सऊदी अरब को अर्जेंटीना की टीम पर ऐतिहासिक जीत मिली थी। सऊदी अरब की जीत पर हमारे देश के कुछ खास उत्साही लोग भी इतरा रहे थे। जैसे कि हम पहले कह चुके हैं कि आप श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए किसी भी खिलाड़ी या टीम को चीयर कीजिए। इसमें कतई गलत नहीं है। पर कतर, सऊदी अरब तथा मोरोक्को के हक में इसलिए खुश होना कि ये इस्लामिक देश हैं, कतई सही नहीं माना जा सकता। यानी आप खेल भावना को समझ ही नहीं सके। आपको ब्राजील, फ्रांस, सेनेगल, स्पेन, हॉलैंड जैसी टीमों के उत्कृष्ट प्रदर्शन में कुछ भी विशेष दिखाई नहीं दिया। आप अर्जेटीना के मेसी की ड्रिबलिंग या फ्रांस के चमत्कारी फारवर्ड कायलियन एमबापे से प्रभावित नहीं हुए। भारत के करोड़ों फुटबॉल प्रेमी परंपरागत रूप से ब्राजील और अर्जेंटीना की टीमों के कलात्मक खेल को पसंद करते हैं। कुछ साल पहले तक तो भारत में सिर्फ ब्राजील की टीम को ही चीयर किया जाता था। भारत में ब्राजील के पेले और अर्जेंटीना के सुपर स्टार डिएगो माराडोना को करोड़ों खेल प्रेमी अपना नायक मानते हैं। ये जब भी भारत आए तो इनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ। मुझे याद है पेले 2015 में दिल्ली में सुब्रतो कप के फाइनल मैच के मुख्य अतिथि थे। पेले ने फाइनल मैच का पूरा आनंद लिया था। उन्हें देखने के लिए अंबेडकर स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था। उन्होंने फाइनल मैच के बाद एक खुली जीप पर सारे स्टेडियम का चक्कर लगाकर दर्शकों का अभिवादन स्वीकार किया था। पेले ने इस मौके पर कहा था- 'मैं सुब्रतो कप में हिस्सा बनकर बहुत खुश हूं। मुझे भारत के युवा फुटबॉल खिलाड़ियों से मिलकर बहुत अच्छा लगा।’ वे उम्रदराज होने पर भी बिल्कुल फिट लग रहे थे। उस यादगार दिन अंबेडकर स्टेडियम में पेले को देखने के लिए हजारों फुटबॉल प्रेमी पहुंचे थे। उन्हें चाहने वाले उन्हें इसलिए नहीं पसंद कर रहे थे क्योंकि वे किसी खास देश या धर्म से संबंध रखते हैं। यह ही होना भी चाहिए। लेकिन, फीफा कप के दौरान तो सारी दुनिया कुछ अलग ही मंजर देख रही है। फीफा आयोजन समिति भी निकम्मी साबित हो रही है कि वह मूक दर्शक बनी हुई है। उसकी तरफ से तब भी कोई आपत्ति दर्ज नहीं हुई थी जब कतर में कठमुल्ला जाकिर नाईक भी पहुंच गया था। उसका लक्ष्य सिर्फ अन्य धर्म के लोगों को इस्लाम में धर्मांतरण करवाना रहता है। वे इस्लाम से इतर सभी धर्मों का लगातार अपमान करता है, नीचा दिखाता है और खिल्ली उड़ाता रहता है। वह भारत से भागा हुआ अपराधी है। उस पर भारत में तमाम गंभीर आरोपों में केस चल रहे हैं। एक बार वह भारत आया तो फिर जीवन भर जेल की सलाखों के पीछे ही रहेगा। फीफा आयोजन समिति को कायदे से कतर सरकार को कसना चाहिए था कि उसने इतने बड़े आयोजन से पहले आखिरकार इस बदनाम जाकिर नाईक को अपने देश में आमंत्रित किया ही क्यों ? इसका उद्देश्य क्या था ? बहरहाल, भारत में जो लोग फीफा कप को एक अलग चश्मा पहनकर देख रहे हैं उन्हें कभी वक्त मिले तो वे यह जान लें कि दुनिया के इस्लामिक राष्ट्रों में कितना आपसी प्रेम है। अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद भयंकर हाहाकार मचा हुआ है। वहां से ज्यादातर स्थानीय अफगानी नागरिक भी अपना देश छोड़कर कहीं और जाकर बसना चाह रहे हैं। उन्हें अफगानिस्तान में अब अपने बीवी-बच्चों के साथ एक मिनट भी रहना सुरक्षित और सही नहीं लग रहा है। अफगानिस्तान में सरेआम कत्लेआम चालू है। पर अफगानिस्तान के मुसलमानों को इस्लामिक देश अपने यहां शरण देने के लिए तैयार तक नहीं हैं। दुनिया के इस्लामिक देशों के अपने को नेता मानने वाले पाकिस्तान, सऊदी अरब तथा तुर्की जैसे देश पूरी तरह चुप हैं। पाकिस्तान का काला चेहरा खुलकर सामने आ रहा है। उसने अपनी अफगानिस्तान से लगने वाली सरहदों पर भरपूर सेना को तैनात कर दिया है। पाकिस्तान कह रहा है कि हमारे यहां तो पहले से ही लाखों अफगानिस्तान के शरणार्थी हैं। हम अब और नहीं लेंगे। तो फिर पाकिस्तान अपने को सारी दुनिया के मुसलमानों का रहनुमा क्यों मानता है। फिर उसने तख्तापलट में तालिबानियों का सहयोग क्यों किया ? अफगानिस्तान संकट के बहाने पाकिस्तान के दोहरे चरित्र को समझना आसान होगा। पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों के हक के लिए सारी दुनिया के मुसलमानों का आये दिन खुलकर आह्वान करता है। वह संयुक्त राष्ट्र से लेकर तमाम अन्य मंचों पर भारत को घेरने की कोशिशों में भी नाकाम रहता है। पर पाकिस्तान यह तो बताए कि वह क्यों नहीं अफगानिस्तान के मुसलमानों को अपने यहां शरण देता? क्या कुछ हजार मुसलमान और आने से पाकिस्तान नष्ट हो जाएगा? 57 इस्लामिक देशों का संगठन इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) भी पूरी तरह नकारा ही साबित हुआ है। ये संकट में भी एक-दूसरे के लिए खड़े नहीं होते हैं। रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने का ही मसला ले लें। म्यांमार के सबसे करीबी पड़ोसी बांग्लादेश ने भी रोहिंग्या मुसलमानों को लेने से मना कर दिया था। सीरिया या इराक में मुस्लिमों द्वारा मुस्लिमों को मारने का कभी भी विरोध नहीं किया जाता। ओआईसी के सदस्यों में भी तानातनी रहती ही है। ईरान-सऊदी अरब एक-दूसरे के जानी-दुश्मन हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में छत्तीस का आंकड़ा तो सबको पता ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी एक-दूसरे के शत्रु हैं। इसके बावजूद भारत के सहारनपुर से दरभंगा में रहने वाले कुछ लोगों को कतर, सऊदी अरब और मोरोक्को में अपना अक्स नजर आता है।
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