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बाल सत्यजीत राय का मिलना रवींद्रनाथ टैगोर से

अजय कुमार शर्मा स्वतंत्र भारत में भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण नाम सत्यजीत राय का है तो परतंत्र भारत में भारतीय कला, संगीत और साहित्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने का काम रवींद्रनाथ टैगोर ने किया। बंगाल से जुड़ी इन दोनों प्रतिभाओं ने अलग-अलग कालावधि में अपनी-अपनी सृजनात्मकता से पूरे देश और दुनिया को प्रभावित किया। शांति निकेतन के रूप में उन्होंने जिस खुले विश्वविद्यालय की परिकल्पना की उससे जुड़कर और वहां पढ़कर अनेक प्रतिभाओं ने अपना परचम फहराया। सत्यजीत राय जब 17 वर्ष के थे तो उनकी मां सुप्रभा देवी इसी शांति निकेतन (विश्वभारती विश्वविद्यालय) के कलाभवन में एमए में दाखिले के लिए बेटे को ले आई। उस समय भी इसमें पढ़ने के लिए छात्र-छात्राओं में होड़ लगी रहती थी। यह बात 1937 के आसपास की है। राय वहां भर्ती हुए और ढाई साल कुछ महीने रहे भी लेकिन तभी कलकत्ता में जापानी युद्धक विमानों की बमबारी शुरू हुई। मां ने डर के मारे बेटे को वहां से बुला लिया। पढ़ाई अधूरी छोड़कर राय कलकत्ता अपने घर लौट आए। लेकिन इससे पहले जब सत्यजीत राय दस साल के थे तो उन्हें शांति निकेतन जाने और वहां रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने का अवसर मिला था। दरअसल शांति निकेतन में हर साल नई फसल के समय पौष मेला लगता है। इस पौष मेले की खासियत यह है कि इसमें बाउल गायक और कीर्तन गायक से लेकर तरह-तरह लोकगायक शिरकत करते हैं। बंगाल ही नहीं, भारत के दूर-दराज के हिस्सों से भी लोग 'पौष मेला' को देखने आते हैं। पौष मेले की शुरुआत रवींद्रनाथ टैगोर के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने की थी। इस मेले का पहला आयोजन दिसंबर 1843 में हुआ था। कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर, सत्यजीत राय के पिता सुकुमार राय को अच्छी तरह जानते थे। सत्यजीत राय के दादा उपेंद्र किशोर रायचौधरी की लेखनी के भी वे प्रशंसक थे। बाप-बेटा दोनों लेखक हों, तो सोने में सुहागा। एक लेखक के तौर पर बंगाल में तब सुकुमार राय और उपेंद्र किशोर रायचौधरी को शायद ही कोई न जानता हो। सत्यजीत राय की मां सुप्रभा देवी को यह मालूम था तो, उन्होंने सोचा-मेला भी घूम लेंगे और बेटे को भी कविगुरु से मिलवा देंगे। उन दिनों रवींद्रनाथ टैगोर के आवास का नाम 'उत्तरायण' था और यह शांति निकेतन के अंदर ही था। मुलाकात के समय गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने सत्यजीत को पहले प्यार किया, बैठाया और खाने की बात पूछने लगे। तभी नन्हे सत्यजीत ने गुरुदेव को एक कापी थमाई और उस पर हस्ताक्षर कर देने का आग्रह किया। इस बीच मां सुप्रभा से इधर-उधर की बातचीत में वे सत्यजीत की कापी पर हस्ताक्षर करना भूल गए। थोड़ी देर बाद बालक सत्यजीत ने मां को उस कापी की याद दिलाई। मां ने कहा- कल गुरुदेव के घर फिर चलेंगे। अगली सुबह मां-बेटा गुरुदेव के समक्ष फिर हाजिर हुए और गुरुदेव को उस कापी पर हस्ताक्षर की याद दिलाई। गुरुदेव ने दोनों को फिर अंदर बुलाया और बच्चे के हाथ में कापी थमाई। कुछ देर बाद बच्चे ने कापी को खोलकर देखा, तो उसके भीतर कुछ लिखा था और सबसे नीचे गुरुदेव का हस्ताक्षर था। सत्यजीत भीतर ही भीतर काफी प्रसन्न था और मां सुप्रभा देवी भी। असल में सत्यजीत राय की उस कापी के भीतर गुरुदेव ने एक कविता लिख दी थी अपने हाथ से, जिसे पढ़कर उसकी मां काफी खुश थी। बेटा सत्यजीत भी गदगद था गुरुदेव के हस्ताक्षर को देखकर। सत्यजीत राय को क्या मालूम था कि बड़ा होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे फिर इसी शांति निकेतन में आना पड़ेगा। वे शांति निकेतन से पढ़ाई तो पूरी न कर सके लेकिन कलाभवन की चाक्षुष कलाएं सत्यजीत राय के दिलोदिमाग पर हमेशा छाई रही। शांति निकेतन में मिले कला गुरुओं-नंदलाल बसु और विनोद बिहारी मुखर्जी को वे कभी भूल नहीं पाए। उनकी बनाई कलाकृतियों और रेखाओं में सत्यजीत राय जैसे 'कैद' हो चुके थे। चलते-चलते 1961 में सत्यजीत राय ने रविंद्र नाथ टैगोर की जन्म शताब्दी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई । इस फिल्म की पटकथा , स्वर और निर्देशन तीनों ही उन्होंने स्वयं किया था । फिल्म प्रभाग के लिए बनाए गए 54 मिनट के इस वृतचित्र में सौमेंदू राय की फोटोग्राफी और ज्योतिंद्र मोइत्रा का संगीत सुनने लायक है। रवींद्रनाथ टैगोर पर निर्मित इस वृत्तचित्र का सबसे पहला प्रदर्शन 21 जुलाई, 1961 को स्विट्जरलैंड में किया गया था। सत्यजीत राय ने विनोद बिहारी मुखर्जी पर भी एक वृत्तचित्र 1971 में बनाया जिसका शीर्षक था द इनर आई। अंग्रेजी में बना यह वृत्तचित्र सिर्फ 20 मिनट का है। विनोद बिहारी मुखर्जी को दिखता नहीं था, वे नेत्रहीन थे। इसीलिए इस छोटी सी फिल्म का नाम उन्होंने यह रखा था।
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