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(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) बिल्लोरी आंखों वाले चंद्रमोहन

अजय कुमार शर्मा



व्ही. शांताराम ने 1934 में एक बहुत चर्चित फिल्म अमृत मंथन बनाई थी। इसमें खलनायक यानी राजगुरु की भूमिका जिस अभिनेता ने निभाई थी उसकी बिल्लोरी आंखों की चर्चा बहुत लंबे समय तक हुई। डर पैदा करने के लिए शांताराम ने उनकी आंखों के क्लोजअप का इस्तेमाल बार-बार किया, जो परदे पर बहुत प्रभावी बन पड़ा था। बिल्लोरी आंखों वाले यह अभिनेता थे चंद्रमोहन और यह उनकी पहली ही फिल्म थी। उन्होंने आगे भी शांताराम की कई फिल्मों में काम किया। अमृत मंथन प्रभात फिल्म कंपनी ने बनाई थी जो कि उस समय कोल्हापुर में स्थित थी और बाद में पुणे शिफ्ट हो गई। अपनी पहली फिल्म से ही चंद्रमोहन लोकप्रिय स्टार बन गए थे। शांताराम की अगली दो फिल्मों धर्मात्मा और अमर ज्योति में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।



चंद्रमोहन का जन्म नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश में 24 जुलाई 1906 में हुआ था। वह कश्मीरी ब्राह्मण थे और उनके पिता ग्वालियर रियासत की सेवा में थे। पिता बहुत कम उम्र में ही चल बसे थे, इसलिए जीवनयापन की सारी जिम्मेदारी उन पर ही आ पड़ी। इसके लिए उन्होंने बहुत सारे काम किए । एक फिल्म वितरण कंपनी में काम करने के दौरान उनकी मुलाकात व्ही. शांताराम से हुई। शांताराम को उनका व्यक्तित्व कुछ अलग और बेहद आकर्षक लगा। इसलिए उन्होंने तुरंत ही उनके सामने अभिनेता बनने का प्रस्ताव रख दिया।



अचानक मिले इस प्रस्ताव को चंद्रमोहन ने उस समय मना कर दिया। कुछ समय बाद चंद्रमोहन नैनीताल के एक थियेटर में मैनेजर बनकर चले गए। वहां शांताराम से उनकी फिर मुलाकात हुई, तब वे उनको मना नहीं कर पाए। शांताराम ने उनके साथ तीन फिल्मों का अनुबंध किया । लगातार प्रदर्शित हुई यह फिल्में थीं अमृत मंथन, धर्मात्मा (1934) और अमर ज्योति (1935)। अमृत मंथन में उनकी आंखों के इस्तेमाल से उनकी छवि एक खलनायक की हो गई थी।

ऐसे में सोहराब मोदी ने उन्हें अपनी ऐतिहासिक फिल्म पुकार में बादशाह जहांगीर की भूमिका देकर एक बहुत बड़ा जोखिम उठाया। यह फिल्म बहुत लोकप्रिय हुई और उनकी भूमिका भी। इस फिल्म में उनकी नायिका सायरा बानो की मां नसीम थी। इस तरह एक खलनायक से नायक बनने का यह पहला बड़ा उदाहरण था। व्ही . शांताराम, चंद्रमोहन को लेकर चौथी फिल्म भी बनाना चाहते थे लेकिन स्वाभिमानी और अपनी बात के पक्के चंद्रमोहन से उनकी बात मेहनताने को लेकर बिगड़ गई। शांताराम पुराने मानदेय पर ही उनसे काम कराना चाहते थे लेकिन चंद्रमोहन चाहते थे कि अब उनकी हैसियत बढ़ गई है तो उनको ज्यादा पैसे दिए जाएं। उस समय तो बात नहीं बनी लेकिन बाद में उन्होंने उनकी फिल्म शकुंतला में जय श्री के साथ दुष्यंत की यादगार भूमिका निभाई।



अपने 15 साल के छोटे करियर में चंद्रमोहन ने लगभग 30 फिल्मों में काम किया। उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में अमृत मंथन, रोटी, शकुंतला, मुमताज महल, श्रवण कुमार और रामबाण प्रमुख हैं जिसमें उन्होंने राजगुरु, अमीर आदमी, दुष्यंत, शाहजहां, राजा दशरथ और रावण के अलग-अलग महत्वपूर्ण पात्रों को अभिनीत किया। महबूब खान की फिल्म रोटी में उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण रोल किया, जिसमें एक अमीर आदमी पैसे के लालच में दूसरों का पैसा हड़प कर अंत में कैसे, पैसे से एक गिलास पानी भी नहीं पा पाता है को बहुत शिद्दत से प्रस्तुत किया था। इसमें उनकी नायिका बेगम अख्तर थीं ।

1944 में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी और इस वर्ष उनकी छह फिल्में रिलीज हुईं जिसमे ऐतिहासिक फिल्म मुमताज महल भी शामिल है। 1945 में उनकी चार फिल्में प्रदर्शित हुई जिनमें हुमायूं और पन्नाधाय शामिल थीं। 1948 में रिलीज हुई शहीद उनकी अंतिम फिल्म थी, इसमें उन्होंने दिलीप कुमार के पिता राय बहादुर द्वारका दास का रोल किया था। 02 अप्रैल, 1949 में सिर्फ 45 साल की उम्र में उनका देहावसान हो गया। लेकिन अपने अंतिम समय में शराब और जुआ की आदत के कारण वे कंगाल हो गए। उनका अंतिम संस्कार भी सीनियर आर्टिस्ट एसोसिएशन ने करवाया था।



चलते-चलते

कम लोगों को यह ज्ञात होगा कि मुगल-ए-आजम में पहले अकबर की भूमिका जो कि पृथ्वीराज कपूर ने निभाई थी को चंद्रमोहन करने वाले थे। असल में के. आसिफ ने फिल्म पुकार में उन्हें जहांगीर की प्रभावशाली भूमिका में देखकर ही अपनी फिल्म में अकबर की भूमिका देने का निर्णय लिया था। अनारकली और सलीम की भूमिका के लिए क्रमशः नरगिस और सप्रू लिए गए थे। फिल्म की काफी शूटिंग भी हो चुकी थी, लेकिन तभी भारत-पाकिस्तान विभाजन और चंद्रमोहन के अचानक निधन के कारण के आसिफ की यह योजना अधूरी रह गई । बाद में उन्होंने यह फिल्म मधुबाला दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर के साथ पूरी की। मोतीलाल, चंद्रमोहन के गहरे मित्र थे और उनके जीवन पर जुआरी नामक फिल्म भी बनाना चाहते थे लेकिन अपने अंतिम समय में वे भी तंगहाली का शिकार होकर रह गए और यह फिल्म बनाने की उनकी तमन्ना पूरी न हो सकी।



(लेखक, वरिष्ठ कला एवं साहित्य समीक्षक हैं।)

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