आज के समय में यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि कोई व्यक्ति अकेले एक ऐसी नाटक कंपनी चला रहा था जिसमें लगभग 100 लोगों का सवेतन स्टॉफ था और नाटक या उसके किसी शो के असफल होने पर भी सबके वेतन समय पर दिए जाते थे। इस कंपनी ने 16 साल तक पूरे देश के 130 छोटे- बड़े शहरों में घूम-घूम कर नाटकों के 2662 शो किए। शो का यह सिलसिला 1945 से 1960 तक चला।
हम बात कर रहे हैं पृथ्वीराज कपूर द्वारा निर्मित पृथ्वी थिएटर की। अपने समय के लोकप्रिय फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने 16 जनवरी 1944 को पृथ्वी थिएटर की नींव अचानक ही रखी। हुआ यह कि पारसी थियेटर के मशहूर लेखक पंडित नारायण प्रसाद 'बेताब' जो कि उनके गहरे मित्र थे, उन्होंने शकुंतला नाम का एक नाटक हिंदुस्तानी भाषा में किसी के लिए लिखा था लेकिन अंत में उसने उसे लेने से मना कर दिया। बेताब जी को उस समय पैसों की सख्त ज़रूरत थी। ऐसे समय में दोस्त की मदद करने के लिए पृथ्वीराज जी ने वह नाटक उनसे 1001रुपये देकर ख़रीद लिया। जब नाटक पास आ गया तो फिर उसके मंचन की तैयारी शुरू हुई। इस तरह अभिनेता, अभिनेत्री, डांसर संगीतकार, गायक, मेकअप वाले, दर्ज़ी, बढ़ई सब आ-आकर पृथ्वी थिएटर से जुड़ने लगे। पृथ्वी जी क्योंकि कभी किसी को माना नहीं कर पाते थे और बड़े रहम दिल थे तो उस समय जो आया वह पृथ्वी थिएटर का ही होकर रह गया। देखते-देखते पृथ्वीराज जी के पास 60 लोगों का एक बड़ा स्टॉफ हो गया। नाटक की रिहर्सल शुरू हो गई हालांकि अब तक नाटक की नायिका का कुछ अता-पता नहीं था। करीब 6 महीने बाद पृथ्वी जी इप्टा से जुड़े ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित नाटक ज़ुबैदा देखने गए और इसकी नायिका उजरा मुमताज को अपने नाटक की हीरोइन शकुंतला का रोल दे आए। शकुंतला का पहला शो 9 मार्च 1945 को रॉयल ओपेरा हाऊस, बॉम्बे में हुआ। इस शो में पापाजी (पृथ्वीराज कपूर को सभी इसी नाम से पुकारते थे) को एक लाख रुपये का नुकसान हुआ। फिर भी पूरे स्टॉफ को वेतन दिया गया। पृथ्वी थिएटर का अगला नाटक दीवार था जिसका पहला शो 9 अगस्त 1945 को हुआ जो बेहद सफल रहा। इसके बाद नाटकों के प्रदर्शन के लिए देशभर के दौरे शुरू हुए। फिर तो इस काफिले में तरह-तरह के लोग जुड़ते गए कवि, लेखक, केवल देखने वाले यहां तक कि सजायाफ्ता मुजरिम भी। इस तरह पूरी कंपनी में 100 से ज़्यादा लोगों का स्टॉफ हो गया। यह सभी तीसरे दर्जे में सफ़र करते थे। इसके लिए रेल की कई बोगियाँ बुक की जाती थीं। जिस शहर में शो होते वहां किराए पर घर लेकर पूरी टीम रहती। टीम में खानसामे और बर्तन से लेकर बच्चे तक शामिल होते। पूरा मजमा एक सर्कस की तरह होता था जिसमें रहना-खाना मुफ्त.. और तो और जो बच्चे छुट्टियों में टूर के साथ होते तो उन्हें भी एक रुपए महावार दिया जाता। नाटकों के शो से पहले अगर समय होता तो पूरी कंपनी को मुफ्त में आसपास के इलाकों में घूमाने भी ले जाया जाता था। शकुंतला और दीवार के बाद पृथ्वी थिएटर ने छह नाटकों, पठान (1947), गद्दार ((1948), आहुति (1949), कलाकार (1951), पैसा (1953) और किसान (1956) जोकि पृथ्वी थिएटर का अंतिम नाटक था, उसके पूरे देश में 2662 शो किए जो अपने आप में एक विश्व रिकार्ड है।
पृथ्वी थिएटर ने जहां नाटकों को पारसी थिएटर के प्रभाव से मुक्त किया वहीं इसको आम लोगों और उनकी परेशानियों से जोड़ा। उस समय देश में आजादी और बदलाव का दौर था। इसीलिए उनके नाटक आपसी भाईचारे, देशभक्ति, बदलाव, तरक्की और इंसानियत का पैग़ाम देने वाले थे।
इसके अभिनेताओं में स्वयं पृथ्वीराज कपूर, प्रेमनाथ, वी एम व्यास, कृष्ण धवन, सुरेश, सत्यनारायण, कमल कपूर, श्रीराम शास्त्री, राजकपूर, शम्मी कपूर, शशि कपूर, मंसाराम और विश्व मेहरा आदि थे। अभिनेत्रियों में उजरा बट, दमयंती साहनी, ज़ोहरा सहगल, इंदुमती लेले, पुष्पा, हेमावती, कुमुदनी लेले आदि थीं। संगीत निर्देशक राम गांगुली, शंकर जयकिशन , लेखक रामानंद सागर, लालचंद बिस्मिल और शील जैसी नेक ऐसी प्रतिभाएं थीं जिन्होंने बाद में भी खूब नाम कमाया।
लेकिन थिएटर की कामयाबी और मशहूरी के बावजूद इसके संस्थापक-निर्देशक पृथ्वीराज जी को इसे लगातार चलाए रखना बहुत ही मुश्किल काम था। शुरुआत में वे फ़िल्मों में काम करके उसका पैसा थिएटर में लगाकर जैसे-तैसे ख़र्चों का जुगाड़ करते रहे। बाद में, जब नाटकों के साथ दौरे कुछ ज्यादा ही होने लगे और उनके लिए बॉम्बे लौट कर फ़िल्मों में काम के लिए समय दे पाना मुमकिन नहीं रहा तो उनके बेटों राज कपूर और शम्मी कपूर ने उन्हें पैसों की दिक़्क़त दूर करने में मदद की। लेकिन खुद्दार पिता को यह अच्छा नहीं लगता था। बहुत ज़्यादा मेहनत करने के चलते उनकी सेहत पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा था, क्योंकि उनके किसी भी किरदार के लिए कोई दूसरा अदाकार मिल ही नहीं पता था। आखिरकार मई 1960 में पृथ्वी थिएटर बन्द हो गया।
इसकी वजह पापाजी के कन्धों पर लगातार बढ़ता जा रहा क़र्जे का बोझ तो था ही बल्कि एक वजह पापाजी के गले में एक सिस्ट होने से उनकी आवाज़ में मुश्किल होना भी था। इस सबके बावजूद अपनी ज़िंदादिल शख्सियत के मुताबिक़, पृथ्वी जी को यह बात बार-बार दोहराते सुना जाता था, "शेरपा तेनज़िंग एवरेस्ट की चोटी पर केवल दस मिनट रुका था। मैं शिकायत नहीं कर सकता क्योंकि मैं खुशकिस्मत रहा जो 16 साल तक चोटी पर रहा!"
चलते-चलते
पृथ्वी थिएटर के नाटक पैसा पर फ़िल्म भी बनाई गई। यह आइडिया उस समय के हिंदी फिल्मों के विख्यात डिस्ट्रीब्यूटर और निर्माता ताराचंद बड़जात्या का था जो पृथ्वीराज कपूर पर लगातार दबाव बना रहे थे और इसके लिए पूरा पैसा लगाने के लिए भी तैयार थे। फिल्म लेखराज टंडन के निर्देशन में राजकपूर के स्टूडियो में बननी शुरू हुई। पृथ्वीराज जी के कहने पर सभी कलाकार नाटक वाले ही रखे गए थे। लेकिन फिर अचानक ताराचंद बड़जात्या ने नई-नई शर्तें लगानी शुरू कर दी। वे फिल्म की सफलता के लिए फिल्म में राजकपूर और नरगिस के साथ एक गाना रखना चाहते थे जिसके लिए पृथ्वीराज कपूर किसी भी हालत में तैयार नहीं थे। तब ताराचंद ने अपने पैसे या फिल्म के निगेटिव लेने की बात कही। आर्थिक तंगी से जूझ रहे पृथ्वी जी के लिए मुश्किल आन खड़ी हुई। ऐसी मुश्किल के समय उनके बेटे राजकपूर बिना बताए उनकी सहायता के लिए आगे आए। ताराचंद को पैसे वापस किए गए और किसी तरह फिल्म पूरी की गई। क्योंकि फिल्म में नाटक के ही कलाकार थे और कोई लोकप्रिय कलाकार नहीं थे अत: फिल्म बुरी तरह नाकाम रही।
SK