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मिथिला और कोसी की गलियों में गूंजा ''चुगला करे चुगली बिलैया करे म्याऊं...''

बेगूसराय, 01 नवम्बर (हि.स.)। सूर्य उपासना के चार दिवसीय महापर्व छठ के साथ ही सनातन धर्मावलंबियों के लिए आश्विन से चल रहे पर्व-त्योहारों की श्रृंखला पर तत्काल ब्रेक लग गया है। लेकिन विभिन्न लोक संस्कृति और लोक पर्व को अपनी धारा में बसाए मिथिला एवं कोसी में तो पर्व-त्योहार-लोक उत्सव की श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होती है। सोमवार कि की देर रात से महाभारत काल से जुड़े भाई-बहन के लोक पर्वोत्सव सामा चकेवा की शुरुआत हो गई है। सोमवार की रात जब गांव की गलियों में ''चुगला करे चुगली बिलैया करे म्याऊं और सामा खेले चलली भौजी संग सहेली'' आदि लोकगीत गायन शुरू हो गया तो वातावरण भव्य हो गया। भाई बहन के कोमल और प्रगाढ़ रिश्ते को बेहद मासूम अभिव्यक्ति देने वाला यह लोक पर्व मिथिलांचल की संस्कृति के समृद्धता और कला का एक अंग है, जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त बाधाओं को भी तोड़ता है। छठ के अंतिम दिन सुबह में सूर्यदेव को अर्घ्य देने के बाद देर शाम से शुरू होने वाले इस लोक पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा की रात होती है। भाई-बहन के अनमोल प्यार के प्रतीक में आठ दिनों तक रात भर महिलाएं सामा खेलती है और अंतिम दिन चुगला का मुंह जलाने के साथ ही इसका समापन होता है। इस उत्सव के दौरान बहनें सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां, टिहुली, कचबचिया, चिरौंता, हंस, सतभैया, चुगला, बृंदावन सहित स्थानीय स्तर पर बनी अन्य मूर्ति को बांस से बने चंगेरा (डाला) में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिए भाईयों के लिए मंगलकामना करती है। हालांकि बदलते समय के साथ इसमें भी बदलाव देखा जाने लगा है। पहले महिलाएं अपने हाथ से ही मिट्टी की सामा-चकेवा बनाती थी, विभिन्न रंगों से उसे सवांरती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता है, बाजार में बने रंग बिरंगे मिट्टी से बनी हुई सामा-चकेवा की मूर्तियां सहज उपलब्ध है और महिलाएं इसे ही खरीदकर घर ले आती हैं। शाम में ''गाम के अधिकारी तोहे बड़का भैया हो, सामा खेले चलली भौजी संग सहेली, साम चके अबिहे हे जोतला खेत में बैसिहें हे, भैया जीयो हो युग-युग जीयो हो तथा चुगला करे चुगली बिलैया करे मियांऊं'' आदि लोक गीत एवं कहावत के साथ जब चुगला दहन करती है, तो वह दृश्य मिथिलांचल की मनमोहक पावन संस्कृति की याद ताजा कर देती है। अन्य जगहों की तरह मिथिलांचल में भी तेजी से बढ़ रहे बाजारी और शहरीकरण के बावजूद यहां के लोग अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं।

मिथिला तथा कोसी के क्षेत्र में भातृ द्वितीया, रक्षाबंधन की तरह ही भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक लोक पर्व सामा-चकेवा में लोक गीत रोज होता है। देवोत्थान एकादशी की रात से प्रत्येक आंगन में नियमित रूप से महिलाएं समदाउन, ब्राह्मण, गोसाउन गीत, भजन आदि गाकर बनाई गई मूर्तियों को ओस चटाती है। फिर कार्तिक पूर्णिमा की रात मिट्टी के बने पेटार में संदेश स्वरूप दही-चूडा भरकर सभी बहनें सामा-चकेवा को अपने-अपने भाई के ठेहुना से फोड़वा कर श्रद्धा पूर्वक अपने खोइंछा में लेती है। बेटी के द्विरागमन की तरह समदाउन गाते हुए विसर्जन के लिए समूह में घर से निकलती है और नदी, तालाब के किनारे या जुताई किए गए खेत में चुगला के मुंह में आग लगाया जाता है। मिट्टी तथा खर से बनाए बृंदावन में आग लगाकर बुझाती है और सामा-चकेवा सहित अन्य मूर्ति को पुन: अगले साल आने की कामना करते हुए विसर्जन किया जाता है। सामा खेलते समय महिलाएं मैथिली लोक गीत गाकर आपस में हंसी मजाक भी करती हैं। भाभी ननद से और ननद भाभी से लोकगीत की ही भाषा में मजाक करती है तथा अंत में चुगलखोर चुगला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलाएं लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घर वापस आ जाती हैं। अब सामा-चकेवा मिथिलांचल से निकलकर दूर तक फैल चुका है। हिमालय की तलहटी से लेकर गंगासागर तक और चम्पारण से लेकर मालदा तक मनाया जाता है।

मिथिलांचल से अवध और अंग तक सामा-चकेवा की धूम मचती है। विभिन्न जगहों पर स्थानीय भाषी होने के बाद भी वहां की महिलाएं एवं युवतियां सामा-चकेवा पर मैथिली गीत ही गाती हैं। जबकि चम्पारण में भोजपुरी और मैथिली मिश्रित सामा-चकेवा के गीत गाए जाते हैं, लेकिन खेल का रस्म सब जगह एक समान है। लोकपर्व सामा-चकेवा के संबंध में कहानी है कि श्रीकृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्ब के बीच अपार स्नेह था, कृष्ण की पुत्री श्यामा का विवाह ऋषि कुमार चारूदत्त से हुआ था। श्यामा ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रमों में सखी डिहुली के साथ जाया करती थी। लेकिन श्रीकृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुरक को यह पसंद नहीं आया और उसने श्यामा के विरूद्ध श्रीकृष्ण का कान भरना शुरू किया। श्रीकृष्ण इस झांसे में आ गए तथा बगैर जांच पड़ताल के ही श्यामा को पक्षी बनने का श्राप दे दिया। जिसके बाद श्यामा का पति चारूदत्त भोलेशंकर की अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करते हुए स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया। श्यामा के भाई श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब ने बहन-बहनोई की इस दशा से मर्माहत होकर पिता की आराधना शुरू कर दिया। इससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने वरदान मांगने को कहा तो उसने बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस लाने का वरदान मांगा। इसके बाद श्रीकृष्ण को पूरी सच्चाई का पता चला तथा श्राप से मुक्ति का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाएं और चुरक की कारगुजारियों को उजागर करें तो वे दोनों अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर लेंगे। तभी से बहनों द्वारा अपने-अपने भाई के दीर्घायु होने की कामना के लिए सामा-चकेवा पर्व मनाया जाता है।
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