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भारत के संर्वांगीण विकास की है संघ की 100 वर्ष की यात्रा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के हाथों रखी गई नींव आज भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में गहरी पैठ बना चुकी है। शताब्दी वर्ष के अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला “100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज” इस बात का संकेत रही कि संघ अब केवल शाखा या संगठन नहीं, बल्कि एक विचारधारा और राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र है। उसके लिए भारत का सर्वांगीण विकास ही सबकुछ है। वस्तुत: इस व्याख्यानमाला में संघ सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ‘जिज्ञासा समाधान’ सत्र में देशभर से आए 218 प्रश्नों को 21 विषय समूहों में बांटकर उत्तर दिए। इस संवाद में संघ की विचारधारा, कार्यप्रणाली और भविष्य की दिशा का समग्र खाका दिखा।

डॉ. भागवत ने शिक्षा को केवल सूचना या रोजगार तक सीमित न रखने की चेतावनी दी। उनका कहना था कि “वही शिक्षा है जो विष का भी उपयोग औषधि में करने की बुद्धि दे।” नई शिक्षा नीति-2020 को उन्होंने भारतीय दृष्टिकोण से सकारात्मक बताया। इसमें पंचकोशीय विकास (शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक और आध्यात्मिक) का जो उल्लेख है, वह भारतीय परंपरा की शिक्षा की मूल भावना को पुनर्जीवित करता है। उनका जोर इस पर भी था कि बच्चों को केवल परीक्षा में अंक लाने के लिए नहीं, बल्कि समाज के प्रति जिम्मेदार और विवेकशील नागरिक बनाने के लिए शिक्षित किया जाए। कला, संगीत, योग, क्रीड़ा और जीवन-मूल्य शिक्षा का हिस्सा हों।

भागवत ने तकनीक की बढ़ती ताकत पर भी टिप्पणी की। “पहले मोबाइल हम सुनते थे, अब मोबाइल हमें सुनता है।” इस वाक्य के पीछे गहरी चिंता छिपी है कि तकनीक साध्य नहीं, केवल साधन है। यदि यह मानव कल्याण के लिए उपयोग न होकर मानव पर हावी हो जाए तो यह विनाशकारी हो सकती है। संघ की सोच है कि विज्ञान और तकनीक का उपयोग समाज और मानवता के हित में हो, न कि केवल बाजार और उपभोक्तावाद को बढ़ाने के लिए।

भारतीय भाषाओं और संस्कृति को लेकर उन्होंने स्पष्ट कहा कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय हैं और मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। संस्कृत को उन्होंने भारत को समझने की कुंजी बताया। विदेशी भाषाएँ सीखना अनुचित नहीं, लेकिन उन पर निर्भरता आत्मगौरव को आहत करती है। निश्चित ही यह दृष्टिकोण आज उस ऐतिहासिक सत्य को सामने लाता है कि गुलामी के दौर में भाषा और संस्कृति पर चोट कर भारतीय आत्मविश्वास को कमजोर किया गया। संघ का आग्रह है कि नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ा जाए।

इस्लाम और हिंदुत्व पर उठे प्रश्नों पर संघ क्या सोचता है, इसके उत्तर में उन्होंने कहा, “इस्लाम जब पहले दिन भारत में आया, तभी से यह यहां है और आगे भी रहेगा। इस्लाम नहीं रहेगा यह सोचने वाला हिंदू सोच का नहीं है।” उनका कहना था कि विश्वास और संवाद से ही संघर्ष समाप्त हो सकता है। संघ प्रमुख के इन शब्दों ने उस धारणा को तोड़ा कि संघ मुस्लिम समाज को बाहर रखना चाहता है। उनका दृष्टिकोण यह है कि सभी धर्मों के लोग भारतीय समाज का हिस्सा हैं, और पारस्परिक विश्वास ही एकता की कुंजी है।

भागवत ने साथ ही यहां यह भी स्पष्ट किया कि आक्रमणकारियों के नाम पर स्थानों के नाम नहीं होने चाहिए। लेकिन वीर अब्दुल हमीद और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे महापुरुषों का सम्मान होना चाहिए। यह दृष्टिकोण बताता है कि संघ किसी का विरोध और नफरत नहीं, बल्कि गौरवशाली स्मृति को प्राथमिकता देता है।

यहां डॉ. भागवत ने जनसंख्या संतुलन और असंतुलन की चुनौती पर भी अपने विचार रखते हुए स्पष्ट किया कि इस विषय में रास्वसंघ का दृष्टिकोण क्या है। वे कहते हैं, प्रत्येक परिवार को अधिकतम तीन बच्चों तक सीमित रहना चाहिए। आदर्श जन्मदर 2.1 है। असंतुलन और अवैध प्रवास विभाजनकारी स्थितियों को जन्म देते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि अवैध प्रवासियों को रोजगार और राजनीतिक संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। निश्चित ही उनका यह दृष्टिकोण जनसंख्या नीति को केवल संख्याओं का प्रश्न नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन का मुद्दा मानता है।

सरसंघचालक डॉ. भागवत ने आरक्षण पर संघ की नीति दोहराई कि संविधान में जो व्यवस्था है, उसका संघ समर्थन करता है। यह तब तक चलेगा जब तक समाज स्वयं यह न कहे कि अब हमें इसकी आवश्यकता नहीं। उन्होंने कहा, “हमारे बंधुओं ने 1000 साल तक कष्ट सहे हैं, उनके दर्द को मिटाने में हमें धैर्य रखना होगा।” वस्तुत: यह कथन इस बात का संकेत है कि संघ आरक्षण विरोधी नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के साथ खड़ा है।

राजनीति और संघ के रिश्तों पर भागवत ने साफ कहा कि संघ सरकार चलाने में विशेषज्ञ नहीं, बल्कि शाखा और समाज निर्माण में कुशल है। “मैं शाखाएं चलाने में विशेषज्ञ हूं और भाजपा सरकार चलाने में।” यह कथन इस धारणा का उत्तर है कि संघ का काम समाज निर्माण और सरकार चलाना राजनीतिक दलों का कार्य है । उन्होंने यहां स्पष्ट कहा है कि संघ का किसी भी दल से विरोध नहीं, अच्छे काम में संघ सबका समर्थन करता है। यही कारण है कि संघ नेताओं से लेकर विचारधारा के विपरीत समझे जाने वाले लोगों तक से संवाद करता है। राजनीति में सुधार की चर्चा करते हुए उनका कहना रहा कि जेल जाने पर पद से हटाने जैसे नियम बन सकते हैं, लेकिन असली सुधार व्यक्ति निर्माण से होगा। जब समाज बदलेगा तो व्यवस्था स्वतः सुधरेगी। यही संघ का मूल दर्शन है; “व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण।”

डॉ. भागवत ने आर्थिक दृष्टिकोण पर भी टिप्पणी की। उनका कहना था कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार हो, परंतु भारत की आत्मनिर्भरता बनी रहे। बाहरी निर्भरता से भारत की नीतियां बंधक नहीं बननी चाहिए। यह दृष्टिकोण महात्मा गांधी के स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत के सपने से मेल खाता है। संघ की तीन अपरिवर्तनीय बातों के बारे में भी यहां बताया गया, एक- हिन्दुस्तान एक हिंदू राष्ट्र है। दो- संघ का उद्देश्य व्यक्ति निर्माण है और अंतिम प्रमुख बात यह कि देश की सेवा सर्वोपरि है। इनके अलावा शेष सभी विषयों पर संघ समय और परिस्थिति के अनुसार लचीलापन दिखाता है।

वस्तुत: यहां यही कहना होगा कि संघ की स्थापना से अब तक उसके सामने कई चुनौतियां आईं; 1948 में प्रतिबंध, 1975 में आपातकाल, और कई बार राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, किंतु इन सबके बावजूद संघ ने समाज में अपनी जगह बनाई। सेवा कार्यों से लेकर सांस्कृतिक जागरण तक, संघ ने यह दिखाया कि उसका लक्ष्य केवल संगठन विस्तार नहीं, बल्कि राष्ट्र का सर्वांगीण विकास है। देश पर आए हर संकट के दौरान स्वयंसेवकों ने जिस तरह सेवा कार्य किए, आपदाओं में राहत पहुँचाई और समाज के सबसे कमजोर वर्ग तक पहुँचे, वह संघ की कार्यशैली का उदाहरण है।

संघ प्रमुख के वक्तव्यों से यह स्पष्ट होता है कि संघ का अंतिम लक्ष्य भारत का सर्वांगीण विकास है। शिक्षा में संस्कार, संस्कृति में आत्मगौरव, राजनीति में स्वच्छता, समाज में समरसता और अर्थव्यवस्था में आत्मनिर्भरता, ये सभी तत्व संघ के ध्येय में समाहित हैं। पिछले 100 वर्षों से स्वयंसेवक यही साधना कर रहे हैं। शाखा में अनुशासन, समाज में सेवा और राष्ट्र के प्रति समर्पण ने संघ को भारत के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के रूप में स्थापित किया है।

वस्तुत: आज जब भारत अमृतकाल में प्रवेश कर रहा है, तब संघ की साधना का यह संदेश अधिक प्रासंगिक है कि भारत का भविष्य केवल आर्थिक प्रगति से नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक आत्मविश्वास और मूल्यनिष्ठ नागरिक निर्माण से ही उज्ज्वल होगा। यही संघ की शताब्दी साधना का सार है और यही उसकी स्थायी धारा भी है।

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