अठारहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि मतदाता के मन को समझना इतना आसान नहीं हैं। इसी तरह से एग्जिट पोल के परिणामों और धरातलीय परिणामों में अंतर से साफ हो जाता है कि मतदाता खुलता भी नहीं है तो किसके पक्ष में मतदान करके आया है उसे वह मुखर होकर बताता भी नहीं है। चुनाव परिणामों से सट्टा बाजार की भी पोल खुल कर रह गई है। ऐसे में सवाल यह हो जाता है कि मतदाता इस जनादेश के माध्यम से आखिर संदेश क्या देना चाहते है? लोकसभा चुनाव परिणाम से यह तो साफ हो गया है कि मतदाता ने एनडीए को तीसरी बार सरकार चलाने का अवसर दे दिया है। बहुमत के 272 की तुलना में एनडीए को 293 सीटें मिली हैं। यह अलग बात है कि पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भाजपा अकेले स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा नहीं छू पाई। बावजूद इसके वह लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। देखा जाए तो 10 साल बाद किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। इससे यह भी तो स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता विरोधी लहर उतनी नहीं रही जितनी दस साल के शासन के बाद सामान्यतः आ जाती है पर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा आदि के माध्यम से मतदाता ने अपनी नाराजगी जाहिर करने में किसी तरह का संकोच भी नहीं किया है। दरअसल जनआकांक्षाओं और सरकार की परफारमेंस के बीच अंतर को पाटने में सरकार पूरी तरह से सफल नहीं रही। हालांकि परफारमेंस के पैरामीटर्स या यूं कहें कि मापदण्ड बदलते रहते हैं। एक बात यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह मेंडेंट ने केन्द्र सरकार की वर्तमान नीतियों का नकारा नहीं है।
दरअसल जनता कहीं न कहीं संतुलन चाहती हैं। सरकारों को जहां एग्रेसिव होना अच्छा लगता हैं वहीं जनता कहीं न कहीं डिलीवरी सिस्टम को लेकर भी चिंतित रहती है। केवल उज्जवल और एग्रेसिव छवि, सफल विदेश नीति, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद, धर्म, आर्थिक विकास या यूं कहें कि इकोनॉमिक ग्रोथ के साथ ही बहुत से ऐसे कारक है जिन्हें नकारा नहीं जा सकता। इसमें कोई दोराय नहीं कि दुनिया का सबस बड़ा और सफलतम लोकतंत्र हमारे यहां है। लोकतांत्रिक देशों में सर्वाधिक राजनीतिक दलों वाला भी हमारा ही देश है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व चुनाव व्यवस्था की सारी दुनिया कायल है। पर इसके साथ ही अब आमजन का मनोभाव यह है कि राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए ना कि मंडी बाजार जैसी एक-दूसरे पर छींटाकशी। वास्तविकता तो यह है कि अब प्रमुख राजनीतिक दलों का काम आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हो गया है। दूसरी बात धर्म की करें तो उत्तर प्रदेश में अयोध्या की सीट पर भाजपा की हार ने पार्टी को निराश किया है। साफ संकेत हैं कि केवल श्रीराम लला या धर्म के नाम पर ज्यादा दिन नहीं चला जा सकता।
एक अन्य बिंदु आर्थिक एजेंडा को लेकर है। कहीं भी मतदाता ने आर्थिक एजेंडे को नकारा नहीं हैं। पर लोग अब महंगाई से त्रस्त हो रहे हैं तो बाजार पर सरकार का नियंत्रण कम होने से परेशान है। जनमानस जहां आर्थिक क्षेत्र में हाई ग्रोथ चाहने लगा है तो सबसे बड़ी समस्या रोजगार के अवसरों को लेकर है। पक्ष व विपक्ष सभी का प्रिय मुद्दा नौकरियां है। सरकार जहां कहती है कि लाखों की संख्या में नौकरी के अवसर विकसित किए हैं वहीं विपक्ष नौकरियां नहीं मिलने की बात करता रहा है। इन चुनावों में भी हिंदी बेल्ट में नौकरियों की कमी का अंडर कंरट अवश्य रहा है। इसके साथ ही आम आदमी का जीवनयापन आसानी से हो सके, इसके लिए सरकार को विजिलेंट रहना ही होगा। इसी तरह से आधारभूत संरचनाओं के विस्तार पर जोर देना होगा। स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, सड़क आदि क्षेत्रों में सरकार को अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाना होगा। आमजन शांति, प्रेम और स्नेह का वातावरण, तेजी से समग्र विकास, विदेशों में गौरव और आधारभूत सुविधाओं का विस्तार चाहता है। रोजगार की सहज उपलब्धता और बाजार पर सरकार की नियंत्रण होने से जीवनयापन और अधिक आसान हो सकता है।
जहां तक विदेश नीति की बात है इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले दस सालों में भारत अब दुनिया के देशों के सामने चौधरी की भूमिका निभाने लगा है। आज कोई भी देश चाहे वह कितना भी बड़ा, संपन्न और शक्तिशाली हो पर भारत को इग्नोर करने की गलती नहीं कर सकता। एक बात और साफ हो जानी चाहिए कि इसे खंडित जनादेश तो कतई नहीं कहा जा सकता। इसलिए विपक्ष इसे खंडित जनादेश मानने की गलती न करे। एनडीए को जनता ने स्पष्ट बहुमत दिया है तो भाजपा को सबसे बड़ा दल बनाया है। इसलिए केन्द्र व राज्यों के संबंधों को विकास में सहभागी बनाने की आवश्यकता है। यह जनादेश एनडीए को स्पष्ट बहुमत और मजबूत विपक्ष के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था को और अधिक गतिमान बनाने का संदेश हैं।