अजय कुमार शर्मा 1973 यानी आज से 50 वर्ष पूर्व का वह वर्ष आज के महानायक अमिताभ बच्चन के लिए एक निर्णायक वर्ष रहा। 1971 में आनंद फिल्म से वे राजेश खन्ना के साथ एक साझी सफलता का हल्का स्वाद चख चुके थे लेकिन अकेले अपने दम पर उनकी कालजयी एंग्री यंगमैन की छवि इसी वर्ष आई फिल्म जंजीर की सफलता से बनी। इस वर्ष आई उनकी अन्य फिल्मों में दूसरी सबसे सफल रही फिल्म थी-अभिमान। इसमें उन्होंने एक ऐसे गायक की भूमिका निभाई जो अपनी पत्नी की सफलता से त्रस्त होकर उससे ही ईष्या करने लगता है। ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में अमिताभ और जया भादुड़ी के सजीव अभिनय और सचिन देव बर्मन के सुपर संगीत ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।
परिवार केंद्रित, गंभीर भावनात्मक फिल्म बनाने वाले ऋषि दा की यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसमें पति-पत्नी के बीच पत्नी की सफलता से उपजे तनाव और असुरक्षा के भाव को बहुत बारीकी और सटीकता से तो प्रस्तुत किया ही गया था बल्कि स्त्री स्वाभिमान(पति का घर छोड़ना और उसके माफी मांगने और स्वयं लेने आने पर ही साथ जाने) की एक प्रखर झलक भी इसमें थी। हालांकि आज के महिलावादी उसे एक पत्नी के पारंपरिक त्याग वाले स्वरूप को बढ़ावा देती फिल्म कहकर नाक भौं सिकोड़ सकते हैं। फिल्म की कहानी के अनुसार सुबीर (अमिताभ) एक सफल गायक है (ऋषि दा ने कुछ ही समय के मोंटाज से यह काम बखूबी किया था) और चित्रा ( बिंदु ) से प्यार करता है हालांकि उसके मित्र और उसका काम देख रहे चंद्रू ( असरानी ) को यह पसंद नहीं है।
इस बीच अपने गांव की यात्रा में वह अपनी मौसी (दुर्गा खोटे ) से मिलने जाता है जहां वह उमा (जया) का गीत सुनता है जोकि पुजारी और संगीत गुरु एके हंगल की पुत्री है। उसका गायन सुबीर को इतना प्रभावित करता है कि वह शीघ्र ही उमा से विवाह करके ही शहर लौटता है। रिसेप्सन पार्टी में एक अन्य संगीतज्ञ (डेविड) अमिताभ-जया को एक साथ गाने को कहते हैं और अपने गायन की श्रेष्ठता से सबसे ज्यादा शाबाशी जया ही पाती है। फिर यहां से जया यानी उमा की सफलता की कहानी शुरू होती है। ( इसे भी ऋषि दा ने एक मोंटाज से बखूबी चित्रित किया है) इस सफलता से अमिताभ के अहंकार को कैसे ठेस लगती है इसको भी जिन दो यादगार दृश्यों से, एक जिसमें फोटोग्राफर उनको जया से अलग हटाकर फोटो खींचता है और दूसरा वह जिसमें उनका ऑटोग्राफ ले रही प्रशंसिकाएं जया के आने पर उन्हें छोड़ जया की तरफ भाग पड़ती हैं से ऋषि दा ने चित्रित किया है वह बेमिसाल है। अचानक परिदृश्य बदल जाता है। निराशा के इस दौर में वह अपनी प्रेमिका बिंदु की तरफ पुन: आकर्षित होता है। एक रात जया वहां पहुंच जाती है और शराब में धुत अमिताभ के व्यवहार से आहत होकर अपने गांव वापस चली जाती है। वहां गर्भपात से बच्चे को खोकर उसकी स्थिति असामान्य हो जाती है। अंत में अपनी गलती का एहसास कर अमिताभ उसे वापस लेने लाते हैं और एक संगीत सभा में दोनों एक साथ गाना गाकर फिल्म का सुखद अंत करते हैं।
पति-पत्नी के बीच पत्नी की सफलता से उपजे तनाव की इस कहानी को लेकर कई अनुमान लगाए जाते हैं कि यह कहानी अमिताभ-जया की थी ( जया सफलता के शिखर पर थी और अमिताभ अपनी पहचान बना रहे थे) या फिर किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा की थी, रविशंकर और उनकी पहली पत्नी अन्नपूर्णा की थी,गुरुदत्त या गीता दत्त की या स्वयं ऋषिकेश मुखर्जी की...।
कहानी की सच्चाई जो भी रही हो फिल्म ऋषि दा की शैली, अमिताभ-जया के जीवंत अभिनय और सचिन देव बर्मन के संगीत, लता मंगेशकर ,किशोर कुमार, मोहम्मद रफी की यादगार आवाजों के लिए हमेशा याद की जाएगी । फिल्म में एक से एक मधुर सात गीत थे। लता के एकल गीत थे-अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी, नदिया किनारे और पिया बिना पिया बिना। उनके युगल गीत थे-तेरी बिंदिया रे (मोहम्मद रफी ) तेरे मेरे मिलन की यह बेला (किशोर कुमार) और लूटे कोई मन का नगर (मनहर उदास) के अतिरिक्त किशोर कुमार का मस्तीभरा गीत-मीत न मिला रे मन... तो आज की पीढ़ी भी गुनगुनाती है। कहानी को आगे बढ़ाते इन गीतों को मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था। फिल्म में बिंदु की सहृदय मित्र की भूमिका ने सबको चौंकाया था तो अमिताभ के ईष्या करते पति के स्वाभाविक अभिनय के मुरीद वह स्वयं और उनके दर्शक आज तक हैं।
चलते-चलते
27 जुलाई, 1973 को रिलीज हुई अभिमान फिल्म के एक महीने पहले ही जया भादुड़ी, जया बच्चन हो गईं थीं । उनको उनकी भूमिका के लिए फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना मानो सोने पर सुहागा रहा तो सचिन देव बर्मन को संगीत निर्देशन का फिल्म फेयर मिलना इस फिल्म की सफलता में जड़ा एक और सितारा रहा।