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श्रमेव जयते!

भारत की सभ्यता प्राचीनकाल से कर्म-प्रधान रही है। कर्म से ही सृष्टि होती है। श्रम का विलोम होता है विश्राम। ऐतरेय ब्राह्मण में श्रम का बड़ा ही मनोरम चित्रण मिलता है। श्रम करने से न थकने वाले को ही श्री की प्राप्ति होती है- नानाश्रांताय श्रीरस्ति। श्रम से असंभव भी संभव हो जाता है। श्रम से ही आदमी सम्पत्ति, यश, सम्मान सब कुछ अर्जित करता है। तभी तो कहा गया कि कर्मठ पुरुष लक्ष्मी को प्राप्त करता है- उदयोगिन: पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी और आलस्य शरीर में बैठा हुआ सबसे बड़ा शत्रु है।

चूँकि जीवन अनंत नहीं है और कार्य अनेक हैं इसलिए बिना समय गँवाए काम में जुट जाना चाहिए। महाभारत में शर-शय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह ने जो उपदेश दिए उनमें यह भी था ‘मृत्यु लोगों को पीट रही है और बुढ़ापे ने उनको घेर रखा है। ये दिन और रातें तेज़ी से बीतती जा रही हैं। तब, तुम क्यों नहीं जाग जाते? अब ऐसा काम करो जिससे तुम्हारा कल्याण हो और समय आगे न निकल जाए। कहीं ऐसा न हो की तुम्हारे कार्य अधूरे रह जाएं और मृत्यु तुम्हें खींच कर ले जाय। इसलिए जिस काम को कल करना हो, उसे आज ही कर लिया जाय। जिसे दोपहर बाद करना हो, उसे दोपहर से पहले कर डालना चाहिए, क्योंकि मृत्यु इस बात की बाट नहीं देखती कि इस आदमी का काम पूरा हो गया या नहीं। जो कल्याणकारी कार्य है उसे तुम आज ही कर डालो। यह महान काल कहीं तुम्हें लांघ न जाय।’

ऐसे में यह अनायास नहीं था कि ‘हिंद स्वराज’ के रचयिता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस धरती को कर्म-भूमि कहा था। जीवन के बड़े सत्य को सामने रख कर बापू ने जीवन-चर्या में कर्म की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए यह सीख दी थी कि आदमी को कमा कर खाना चाहिए। एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए इस सूत्र को बापू अपने वास्तविक जीवन में उतारते रहे।

वस्तुतः श्रम (अर्थात् मेहनत, मशक्कत, परिश्रम या प्रयास) ही जीवन को स्पंदित करता है। पर गौरतलब बात यह है कि यह श्रम नाशवान प्रकृति का है और यदि कार्य न किया जाय तो उस (बीत चुकी) अवधि का कार्य फिर वापस नहीं लौटाया जा सकता और सदा के लिए नष्ट हो जाता है। इसलिए जीवन का हर क्षण अनमोल है और उसका समुचित निवेश किया जाना चाहिए। यह विश्व कर्म प्रधान है और यह पुरानी कल्पना रही है कि श्रम से यह धरती स्वर्ग बन सकती है। दृढ़ लगन से कोई काम कठिन नहीं रह जाता और कर्महीन को कुछ भी नहीं मिलता। सिर्फ सपने देखने से नहीं काम करने से ही मनोवांछित फल मिलता है। तुलसीदास जी के शब्दों में- सकल पदार्थ एहि जग माही, करमहीन नर पावत नाहीं। वस्तुतः श्रम विकल्पहीन और अमूल्य है।

जगत में कुछ भी स्वतः नहीं होता है- सिद्धिर्भवति कर्मजा। कर्म ही वह रहस्य है जिससे परमात्मा का स्मरण किया जाता है और मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है- स्व कर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दंति मानवा:। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी जन नियत कर्म करें- नियतं कुरु कर्म त्वं । कर्म किए बिना एक क्षण भी कोई रह नहीं सकता। श्रम का महत्व वैदिक काल में ही महसूस किया गया। प्राचीन आख्यानों में देवी-देवताओं द्वारा भी तप करने का वर्णन मिलता है। पुराणों में तप से सिद्धियाँ पाने के अनेक आख्यान हैं। उपनिषद की कथाओं में भी तपश्चर्या का महत्व प्रतिपादित किया गया है। आरंभ से ही शतायु और सक्रिय जीवन भारतीय संकल्पना के केंद्र में बना रहा है। कर्म की अनिवार्यता ही श्रीमद्भगवद्गीता का मुख्य संदेश है। तिलक और गांधी जैसे राष्ट्रनेताओं ने कर्म, श्रम और सेवा की आपसी निकटता को सार्वजनिक जीवन में स्वर दिया। जगत में जीवन-यापन के लिए क्रियायोग निजी और सामाजिक जीवन में यज्ञ उन्नति और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है। कर्म पर सबकुछ टिका है। विद्वान भी वही है जो अमूर्त ज्ञान को व्यवहार में रूपांतरित कर सके। विद्वान स्वभाव से क्रियाशील होता है-यस्तु क्रियावान पुरुष: स विद्वान्।

बापू के आश्रम में श्रमदान और स्वावलम्बन दैनिक जीवन का सामान्य अभ्यास था। उनके अनुगामी और मित्र संत विनोबा भावे भी इसी पथ पर चलते रहे। इन लोगों ने यह अनुभव किया कि हमारे शरीर की रचना और प्रकृति ही ऐसी है कि शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए सक्रियता जरूरी होती है। आज स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा स्वस्थ व्यक्ति की स्वास्थ्य-रक्षा और अस्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ बनाने के लिए शारीरिक व्यायाम के महत्व पर बल दिया जाता है। सोने जागने समेत हमारा सारा आचार-व्यवहार युक्त होना चाहिए। अर्थात् मन, वचन और कर्म सबके बीच सामंजस्य होना चाहिए। अस्तित्व या होना गतिमयता को महत्व दिया गया।

श्रम का आंतरिक रूप भी है और बाह्य भी। योग-शास्त्र में आसन, ध्यान तथा प्राणायाम की व्यवस्था की गई थी। प्राणशक्ति अपान, उदान, व्यान, समान आदि विभिन्न रूपों में शरीर में व्याप्त हो कर जीवनीय ऊर्जा का संचार करती है। श्रम करते हुए शरीर आंतरिक रूप से तो सुसज्जित होता ही है बाहर की दुनिया में विभिन्न कार्यों में श्रम के विनियोग द्वारा नई सर्जना में भी जुटता है। यह मन और शरीर के एक समग्र इकाई के रूप में संयोजन से ही संभव होता है। उल्लेखनीय है कि मन और शरीर को अलग सत्ता मानना पश्चिमी विचार है। मन और शरीर का द्वैत सोलहवीं सदी में पश्चिमी दार्शनिक रेने देकार्त द्वारा प्रतिपादित किया गया था। भारतीय चिंतकों ने मन को शरीर का ही हिस्सा माना था। वह अंत:करण है यानी एक आंतरिक इंद्रिय जो सुख-दुःख का पता देता है और दूसरी सभी इंद्रियों को संचालन का आधार प्रदान करता है।

आज जीवन को तकनीकी संचालित करने लगी है और कार्य और विश्राम के बीच की सीमा रेखा धूमिल हो रही है। इसी तरह यथार्थ और आभासी (वर्चुअल) दुनिया को निकट ले आती इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों से लैस होती जा रही हमारे काम-काज की दुनिया उलट-पलट हो रही है । अब बहुत सारे काम लैप टाप या मोबाइल पर उंगली फिराने भर से पूरे हो जा रहे हैं। इसका असर कार्यों की प्रकृति और उसके आयोजन को प्रभावित पर पड़ रहा है। आफिस न जाकर घर से काम करने का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है। कार्यों के विभाजन विभाजन और उसकी नियमितता को सुरक्षित रखते हुए गतिशीलता लाने की दिशा में कदम बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। परंतु मानवीय सम्बन्धों और भावनाओं की दुनिया से दूर होती जा रही कार्य की दुनिया अधिकाधिक यांत्रिक हुई जा रही है। इसी के साथ वैयक्तिकता और आत्मकेंद्रिकता बढ़ रही है और सामाजिकता संकुचित हो रही है। साइबर गतिविधियों के बढ़ने के साथ बहुत सारे नए नैतिक और आपराधिक सवाल भी खड़े हो रहे हैं।

शारीरिक श्रम में बढ़ती कटौती और काम करने में सुभीते के साथ अवकाश का समय बढ़ रहा है। पर बचे समय का सार्थक उपयोग करने की संस्कृति अभी विकसित नहीं हो सकी है। स्क्रीन टाइम बढ़ रहा है। सोशल मीडिया से जुड़ना, पर्यटन पर जाना, मादक द्रव्य व्यसन और किस्म-किस्म की पार्टी आयोजित करना बढ़ रहा है। इसमें अपराध और असामाजिक तत्वों की भागीदारी भी हो रही है। इन सब बदलावों के बीच श्रम का आकार-प्रकार नए रूप पा रहा है। हमें संतुलन बनाते हुए राह बनानी होगी क्योंकि श्रम हमारे अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है, जिससे बचा नहीं जा सकता। रचनात्मकता भी तभी आ सकेगी जब हम श्रम को जीवन यात्रा के मध्य प्रतिष्ठित करेंगे।


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