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जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं की हत्या के पीछे इस्लामिक जिहाद को आज कोई तो नकारे !

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

जम्मू कश्मीर के शोपियां जिले में आतंकियों ने एक कश्मीरी पंडित की गोली मारकर हत्या कर दी। घटना खबर बनी और देशभर के लोगों ने फिर देखा कि घाटी कैसे हिन्दुओं के खून से लाल हो रही है। गैर इस्लामिक को घाटी में रहने की कोई जगह नहीं। हर बार ऐसी घटनाओं से यही संदेश देने का प्रयास हो रहा है। सरकार के पास अपनी रणनीति है, किंतु वह भी आम नागरिकों के वेश में छिपे हुए इस्लामिक आतंकियों के सामने विफल हो रही है। पता नहीं चलता कब, कहां से कौन अचानक बंदूक या हथगोला लेकर प्रकट हो जाए। तभी तो टार्गेट किलिंग है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही।

आतंकी हमले में मारे गए कश्मीरी हिंदू पूर्ण कृष्ण भट्ट का शव जैसे ही श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार के लिए पहुंचा दिल को रुलाने वाला दृश्य उभर आया । बेटी श्रेया और बेटा शानू ने कई बार पापा के शव का माथा चूमा और आंखों में आंसू थे कि रुकने का नाम नहीं लेते ! कश्मीर में जब भी किसी हिन्दू की हत्या होती है, तब ऐसा मार्मिक दृश्य उभरता है और नब्बे का दशक याद आ जाता है । उस समय में कश्मीर को भारत से काटकर इस्लामी कश्मीर बनाने की जो कोशिश शुरू हुई थी, कह सकते हैं कि इसी की कड़ी है ताजा घटनाक्रम।

वस्तुत: कश्मीर में हिंदुओं पर कहर टूटने का बड़ा सिलसिला 1989 जिहाद के लिए गठित जमात-ए-इस्लामी ने शुरू किया था। 19 जनवरी 1990 की रात को कश्मीरी हिन्दुओं के सामने तीन विकल्प रखे गए, पहला वो इस्लाम कबूल करें । दूसरा कश्मीर छोड़कर चले जाएं और तीसरा दोनों विकल्प नहीं चुनने पर मरने के लिए तैयार रहें। उसके बाद से जिस तरह से कश्मीर में हिन्दुओं के कत्ल, उनकी बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण हुए, वह घटनाक्रम अब भी इन टार्गेग किलिंग से ताजा हो रहे हैं।

तत्कालीन समय में एक स्थानीय उर्दू अखबार 'हिज्ब-उल-मुजाहिदीन' की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई और कहा गया था कि सभी हिंदू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ कर चले जाएं। एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र 'अल सफा' ने इस निष्कासन के आदेश को पुन: दोहराया। मस्जिदों में भारत एवं हिंदू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। कश्मीरी हिन्दुओं के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया गया, 'या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो'। इसके बाद करोड़ों के मालिक कश्मीरी हिन्दू पंडित अपनी पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर रिफ्यूजी कैंपों में रहने को मजबूर हो गए।

डेढ़ हजार से ज्यादा कश्मीरी हिंदुओं की हत्या 90 के दशक से अब तक हो चुकी हैं। जिहादी क्या चाहते हैं यहां ? वैसे इसका उत्तर दुनिया जानती है, फिर भी सभी अनजान बने रहना चाहते हैं। कश्मीर में वे शुरू से ही ''निजाम ए मुस्तफा'' यानी इस्लामिक राज्य जैसा तालिबानी शासन है चाहते हैं, जहां शरिया लागू है। अब इसमें सबसे बड़ा रोड़ा यदि कोई इन आतंकियों को दिखता है तो वे कश्मीरी हिन्दू पंडित हैं। इसलिए ही वे चुन-चुन कर मौका पाते ही इन्हें अपना निशाना बनाते हैं।

इस संदर्भ में हमें भौतिकी के प्रोफेसर और गणितज्ञ 80 वर्षीय डॉ. बिल वार्नर के शोध कार्य को समझना चाहिए, जिसमें उन्होंने इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार और इतिहास पर गहरी दृष्टि डाली है। सबसे बड़ी बात यह है कि इनका पूरा शोध मूल इस्लामी स्रोतों कुरान और हदीस पर आधारित है, इसके इतर कुछ भी नहीं लिया गया। कुरान में 84 बार सत्य तथा 46 बार झूठ, झूठे देवी-देवता इत्यादि शब्दों का उल्लेख है। चार सौ बार काफिर का उल्लेख है, जिसमें कि 345 बार सीधे अर्थ में कहा गया, जो अल्लाह और उसके प्रोफेट को न माने, वह काफिर है। संपूर्ण इस्लामी सिद्धांत राजनीति से पूर्ण एवं काफिर शब्द के साथ ही जिहाद आधारित हैं ।

डॉ. बिल वार्नर ने अपनी पुस्तक 'मेजरिंग मुहम्मद' और अन्य शोध पुस्तकों के माध्यम से बता दिया है कि सुन्ना (सीरा-हदीस) एवं कुरान मजहबी राजनीति के साथ ही काफिरों पर केंद्रित हैं, जिसका कि मूल स्वर यही है कि अल्लाह काफिरों का दुश्मन है। इसका परिणाम यह हुआ कि काफिरों के विरुद्ध हर तरह की कार्रवाई का निर्देश (मूर्ति पूजकों या अन्य जो भी इस्लाम को नहीं मानते हैं) उनके प्रति नफरत या जिहाद का अवसर इस्लामिक आतंकवादी, जिहादी अपने लिए आसानी से ढूंढ लेते हैं।

वार्नर ने बहुत ही विस्तार से बताया है कि कैसे सीरा में 81, कुरान में 64 और सर्वमान्य हदीसों में 37 प्रतिशत अध्ययन सामग्री जिहाद को केंद्र में रखती हैं । कुरान में इस्लाम नहीं मानने वालों के लिए अंधे, बहरे, जानवर, गूंगे (कुरान 2:171), गंदे (22:30, 9:28), बंदर, सुअर (5:60, 7:166) जैसे शब्दों को आप स्वयं देख-पढ़ सकते हैं । यहां जिहाद का सीधा अर्थ , कत्ल से है (9:111, 47:4)। इसीलिए डॉ. वार्नर जोर देकर कहते हैं कि यदि काफिर यानी मूर्ति पूजक या अन्य जो इस्लाम को नहीं मानते वे सभी यदि अपनी दृष्टि से इस्लाम को तथ्यतः नहीं जानेंगे, तब समय के साथ उन सभी का मारा जाना या उनकी हत्या किया जाना तय है । पिछले चौदह सौ सालों से जिहाद का खेल जारी है। जाने कितनी संस्कृतियां, मत, पंथ नष्ट हो गए, फिर भी हम हैं कि इस सत्य को स्वीकार्य करना ही नहीं चाहते।

वस्तुत: डॉ. बिल वार्नर 'मेजरिंग मुहम्मद' व अपनी अन्य शोध पुस्तकों में जो बताने का प्रयास कर रहे हैं, वही आज जम्मू-कश्मीर राज्य समेत देश में अनेक राज्यों में घटता हुआ नजर आ रहा है। इस संदर्भ में डॉ. कुंदन लाल चौधरी की पुस्तकें भी देखी जा सकती हैं, जिसमें कश्मीरी समाज और राष्ट्रीय स्थिति का आकलन है। उनकी पुस्तक 'होमलैंड आफ्टर एट्टीन ईयर्स' पढ़ते ही आप कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द से आह भर उठते हैं । कश्मीर में जिहादी, कश्मीरी मुस्लिम मानसिकता और उस के परिणाम की संपूर्ण समझ इसमें है। एक अन्य पुस्तक 'ऑफ गॉड, मेन, एंड मिलिटेंट्स' है। कैसे सदियों से, और फिर गत सौ साल में लगातार, कश्मीरी हिन्दू पंडितों को जिहाद से डराया-मारा-भगाया जाता रहा है, यह सब इसमें है ।

लेखिका क्षमा कौल से जब बात की गई तब उन्होंने जो बताया, उसे सुनकर थोड़े समय के लिए शरीर जैसे सुन्न पड़ गया था। अपने पुरखों की भूमि से भगाए जाने का दर्द क्या होता है, जिसका यह भोगा हुआ यथार्थ है, उससे अच्छा भला कौन जान सकेगा ? वे कहती हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा । इसलिए अपने उपन्यास ''मूर्ति भंजन'' में मैंने यह जिक्र किया है कि कैसे शरणार्थी शिविरों में हमारी हालत खराब हुई है। अब तक हम उस तकलीफ से बाहर नहीं आ सके हैं। आप कश्मीर के सत्य को समझने के लिए मेरा उपन्यास 'दर्दपुर' भी पढ़ सकते हैं। वास्तविकता यही है कि हिन्दुओं में अच्छा होने की बीमारी ने कैंसर की तरह घर कर लिया है और मुसलमान में बिगड़ा बच्चा होने की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया है। दोनों ही कैंसर लाइलाज होते जा रहे हैं और हमारे देश को खा रहे हैं। आज यह साबित हो रहा है कि हम हिन्दू गुड बॉय सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। सरकार फिर कोई भी हो, उससे कितनी उम्मीद की जा सकती है ? जब हमारा समाज ही सोया हुआ है।

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