भारतीय संस्कृति मूल्य आधारित संस्कृति है। मूल्यों को धारण करने के कारण ही मानव के अंदर मानवीयता का आभास होता है। मूल्य ही दो पैर- दो हाथ वाले प्राणी मनुष्य को मनुष्यत प्रदान करते हैं अन्यथा वह पशुवत है। मूल्य मानवता का आधार हैं। मूल्य की मनुष्य के अंदर स्थापना होने से मनुष्ययत्व की गरिमा बढ़ती है। मूल्य मानवता के प्राण हैं। मूल्य विहीन मनुष्य का जीवन बगैर खुशबू के पुष्प की तरह से निरर्थक है। अतः इन मूल्यों को धारण करने के कारण भारतीय संस्कृति में वैश्विकता, निरंतरता, जीवंतता, श्रेष्ठता, शाश्वतता, आध्यात्मिकता की अनुभूति होती है, जो इसे वैश्विक संस्कृति Global culture बनाते हैं। भारतीय संस्कृति के मूल्य सार्वभौमिक हैं।
मूल्य वे तत्व या गुण हैं जो मानवीय आचरण में श्रेष्ठता, विशिष्टता, दिव्यत्व, उत्कृष्टता को प्रदर्शित करते हैं। मानव के व्यक्तित्व को सुगंध, दिव्य आचरण से भर देते हैं। इनके अभाव में मानव अमानव बन जाता है। भारतीय संस्कृति के मूल्यो में सत्य, प्रेम, दया, करुणा, अहिंसा, आस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, सहिष्णुता, ''वसुधैव कुटुंबकम'' , तें त्यतेंन भुन्जिथ:, ''मातृवत पर्दारेशु-परद्रव्येसु लोस्टवत्त'', आत्मवत्त सर्व भूतेषू , त्याग, सेवा इत्यादि को शामिल किया गया है।
धृती मेधा दमोस्तेयं, शौच्ं इंद्री निग्रह:।
धी विधा सत्यंक्रोधो, दशक्ं धर्म लक्ष्णम्ं।।
भारतीय संस्कृति में धर्म के दस लक्षण/गुण ही मानवीय मूल्य है; जो मनुष्य को महामानव, संत, महात्मा, धर्मनिष्ट बनाते हैं। सभी प्रकार का श्रेष्ठ आचरण, गुण, व्यवहार मूल्य की श्रेणी में आता है अतः मूल्य का जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। मूल्य विहीन जीवन निरर्थक है। मूल्य की इसी महत्ता के कारण स्वामी विवेकानंद जी माता काली से प्रार्थना करते हुए कहते थे- ''हे! मां मुझे मनुष्यत्व दो!! माँ! मेरी कापुरुषता, दुर्वलता नष्ट कर दो,हे मां !! मुझे मनुष्य बना दो।''
वर्तमान में जो शिक्षा पद्धति विगत 72 वर्षों से चलती चली आ रही है। वह ''अंग्रेजी शिक्षा पद्धति'' मैकाले के द्वारा भारत पर थोपी गई थी। पश्चात शिक्षा पद्धति थी जिसमें मूल्यो का अभाव था। जो व्यक्ति को बाबू , क्लर्क, अधिकारी तो बनाती थी किंतु व्यक्ति को मनुष्य नहीं बनाती थी। वह पद्द्ति मूल्य विहीन थी, जिसने डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, वकील तो पैदा किये किन्तु उनमें मानवीय मूल्यों को न भर सकी। अत: वह बड़े अधिकारी बनकर भी मानवी गरिमा के अनुरूप संवेदना, सत्य निष्ठा, त्याग, प्रेम, परोपकार का व्यवहार नहीं करते जो की अपेक्षित है। ऐसी मूल्य विहीन शिक्षण पद्धति से तैयार होने वाले नागरिक देखने में मनुष्य नजर आते हैं किंतु आचरण में सत्यनिष्ठा, कर्तव्य निष्ठा, देशभक्ति का अभाव सदैव बना रहता है। तब ऐसे नागरिकों के व्यवहार, आचरण से देश का किंचित भी भला होने वाला नहीं है। तभी शासन के द्वारा भारी भरकम बजट से तैयार योजनाएं फेल होती दिखाई देती हैं।
बिहार में पुल बनने से पहले ही गिर जाता है। सड़क जल्दी ही उखड़ जाती है। बिल्डिंग गिर जाती है, कोई मंत्री चारा खा जाता है तो कोई शेयर या बोफोर्स, 2G स्पेक्ट्रम, कोल ब्लॉक, कॉमनवेल्थ घोटाला कर जाता है। इसका कारण व्यक्तित्व निर्माण के दौरान उन मूल्यों को व्यक्तित्व में समावेश नहीं करा सके जो की प्राचीन ''गुरुकुल शिक्षा पद्धति'' में करा दिया जाता था। आज समाज में दिखाई देने वाली अव्यवस्था, अशांति, अपराध, भ्रष्टाचार के मूल/जड़ में यही मानवी मूल्यो का अभाव दिखाई देता है। सारी बुराइयों की जड़ मूल्य हीनता अथवा संस्कारहीनता ही है।
अतः यदि हमें भविष्य में सुंदर समुन्नत समाज का निर्माण करना है। ''एक भारत श्रेष्ठ भारत'' बनाना है तो बचपन से ही बच्चों के कोमल मस्तिष्क में मानवी मूल्यो की प्रतिष्ठा करना आरंभ करें। नैतिक शक्ति/धर्म ही समाज की सबसे बड़ी शक्ति होती है। इसी के कारण व्यक्ति बगैर दंड, सिग्नल या आदेश के स्वप्रेरणा से श्रेष्ठ, लोक कल्याणकारी आचरण/व्यवहार करता है। जिससे समाज में शांति, सुव्यवस्था, निर्भयता श्रेष्ठता के वातावरण का निर्माण होता है; अन्यथा मूल्य हीनता, श्रेष्ठ मानवीय गुणौ के अभाव में व्यक्ति उच्छशृंखल, निठल्ले, असंवेदनशील, चोर, बेईमान, अनुशासनहीन, अनैतिक बनता है।
प्राचीन भारतीय ऋषि प्रणीत ''गुरुकुल शिक्षण पद्धति'' सर्वांग पूर्ण शिक्षण पद्दती थी। जिसमें प्रकृति के सानिध्य में नदी, सरोवर या आरण्य क्षेत्र के मनोहरी वातावरण में दिव्य शिक्षण दिया जाता था। जहां पर जागरण ब्रह्म मुहूर्त में प्रतिदिन छात्रों को वेदपाठ, यज्ञ अग्निहोत्र कराया जाता था। गौ सेवा, आश्रम व खेतों का श्रमदान भी छात्रों से कराया जाता था। आश्रम की दिनचर्या अनुशासन, पद्द्ति, पाठ्यक्रम, आचार्य का व्यवहार ही इतना दिव्य मनोरम व अनुपम, प्रेरणपृद हुआ करता था कि छात्रों के समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता था। गुरुकुल से निकलने वाले छात्र भविष्य में समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफल होते थे। उन्हें जीवन लक्ष्य/ आत्मबोध छात्र जीवन में ही करा दिया जाता था।
अतः मूल्य आधारित पद्धति से तैयार छात्र/व्यक्तित्व जब जीवन में समाज का संचालन करते थे तो उनके अंदर राष्ट्रभक्ति, लोकहित, कर्तव्य निष्ठा झलकती थी। जिससे समाज में शांति, सुव्यवस्था, अपराध मुक्त- भ्रष्टाचार मुक्त, स्वर्गीय वातावरण का निर्माण हुआ करता था। वर्तमान में इन्हीं श्रेष्ठ तत्वों का अभाव होने से अशांति, अपराध, भ्रष्टाचार, कलह का वातावरण बना हुआ है। अत: हमें समस्या की जड़ पर प्रहार करना होगा, तभी समाधान मिल सकेगा। वृक्ष की जड़ पर जल चढ़ाने से वह संपूर्ण वृक्ष को प्राप्त हो जाता है। ठीक इसी के विपरीत अमरबेल नामक परजीवी का एक छोटा सा टुकड़ा किसी भी वृक्ष पर डाल दीजिए, वह बढ़ करके सारे वृक्ष को चूस लेगा। यही अमरबेल का कार्य पश्चात शिक्षण प्रणाली ने भारत में किया।
लॉर्ड मैकाले ने 2 सितंबर 1835 के अपने भाषण में कहा था- ''मैं आने वाले वर्षों में भारत में एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को लागू करने जा रहा हूं, जिससे ऐसे व्यक्तियों का निर्माण होगा जो सूरत- शक्ल से तो भारतीय होंगे किन्तु चिंतन, चरित्र, व्यवहार से पाश्चात्य अर्थात हमारे अनुगामी होंगे।''
आज मैकाले की फसल भारत में चन्हूओर लहलहा रही है। हैप्पी बर्थडे टू यू, वैलेंटाइन डे, हैप्पी न्यू ईयर, प्री वेडिंग शूट, डीजे कलचर, हेलो! हाय! की पद्धति उसी की देन है। वर्तमान में लड़के-लड़कियों के पश्चात्य पहनावा, वस्त्र की फुहड़ता, फटे पेंट पहनना इत्यादि मैकाले की ही देन है, और भी बहुत कुछ ऐसा इस पाश्चात्य शिक्षा की देन है जो यदि निरंतर चलता रहा तो एक दिन यह भारत को नष्ट कर देगा। अर्थात भारतीय संस्कृति को नष्ट कर देगा। दुनिया में आदिकाल से भारत ही मानवता का आधार रहा है; यदि वही नष्ट हो गया, तो फिर बचेगा क्या? भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, क्षणिकवाद, सनातन संस्कृति के प्रति आस्था संकट इत्यादि सब कुछ इस ‘पाश्चात्य शिक्षण’ पद्धति के प्रभाव स्वरूप आज समाज में दिखाई देता है। हम अपनी जड़ों से दूर होते चले गए, पता ही नहीं चला। हम क्या थे, क्या हो गए। पश्चिम की आंधी में हम कौन हैं? सब भूल गए। हम भारतीय ऋषियों-मुनियों, संतो, देवताओं, दिव्य महापुरुषों की संतान हैं, सब भूल गए।
मूल्य आधारित शिक्षा का उद्देश्य नैतिकता से ओत-प्रोत, शांति, सुव्यवस्था, अपराध व भ्रष्टाचार मुक्त सभ्य समाज का निर्माण करना है। क्योंकि जैसा सांचा होता है वैसे खिलौने का निर्माण होता है। ''यथा राजा तथा प्रजा'' की कहावत चरितार्थ होती है। एक सभ्य, नैतिक समाज के निर्माण में ''मूल्य आधारित शिक्षा पद्धति'' का महत्वपूर्ण योगदान होता है व रोटी, कपड़ा, मकान से भी अधिक महत्वपूर्ण वस्तु शिक्षा है। इसके अभाव में व्यक्ति, समाज व राष्ट्र पतन के गर्त में चला जाता है। कर्तव्य परायण, स्वस्फूर्त समाज के निर्माण के लिए नैतिक मूल्यों से युक्त शिक्षा पद्धति की आवश्यकता है। 2020 में नई शिक्षा पद्धति आई वह भी कुछ इस दिशा में कार्य कर रही है। किंतु यदि'' स्वर्णिम भारत- सतयुगी समाज'' का निर्माण करना है, तो आज देश में ''गुरुकुल बोर्ड '' बनाकर देश की प्रत्येक तहसील स्तर पर एक गुरुकुल का निर्माण होना ही चाहिए ।
किसी समय भारत में 6 लाख गुरुकुल हुआ करते थे। जिनसे चाणक्य-चंद्रगुप्त, कुमारजीव, बोधिधर्मन, नागार्जुन, अश्वघोष, शिवाजी, महाराणा प्रताप, बाबा रामदेव, रामतीर्थ, दयानंद, विवेकानंद, आत्मानंद, विशुद्दानंद, श्नंद्धानंद जैसे महापुरुष निकला करते थे। जो अपनी प्रतिभा से इस विश्व उद्यान/वसुधा को सुंदर-समुन्नत बनाते थे। आज भी पुन: वही अपेक्षा समाज, राष्ट्र व विश्व को मुर्धन्यो से है। इससे कम में बात बनने वाली नहीं है। अतः समाज-राष्ट्र के बुद्धिजीवी, रास्ट्रभक्त, संवेदनशील नागरिक वर्ग को इस दिशा में चिंतन करके तुरंत कदम बढ़ाने चाहिए अन्यथा विश्व वेदना से झुलस्ता चला जाएगा।
''ऐही सम विजय उपाय न दूजा।''